कुछ वाक्ये लफ़्ज़ों से कम
और ख़ामोशी से बहतर बायाँ होते हैं
कुछ ऐसी ही बात थी हमारी तुम्हारी
बेनाम सि… अनकही सि…
कुछ पहचानी सी भी
जैसे चोरी छुप्पे आम चुरन
पर चुरा तो आखें ही रहे थे
कुछ सन्नाटे में हिचकी जैसी
ज़रा सी धदक्ति… ज़रा सी सुन्न…
कुछ पहचानी सी भी
अच्छा देखो…
अच्छा देखो…
क्या?
अब यह भी बताना पड़ेगा ?
ह्म्म्म…
तो मत देखो…
ले देख लिय…
क्या ?
अब यह भी बताना पड़ेगा ?
बेमानी सी अटपटी बातें हम दोनों की
कुछ नोक झोंक और हंसी मज़ाक
कुछ लड़ना झगड़ना झूठा मूठा
कुछ आग़ाज़ सि… कुछ अंजाम सि…
और ज़रा सी चुप चाप बैठी अकेले
कच्छ पहचानी सी भी
बस मीठी याद… हलकी मुस्कराहट
थोड़ी सी बेवकूफी
कुछ ठंडी ठंडी बर्क ते तरह
और सांसों सी हलकी गर्म
कुछ तुमहरि… कुछ मेरि… कुछ हम दोनों कि…
और कुछ बदनाम सी भी
क्या? अब भी नही समझे?
म्म हम्म
कहनि…
All I can say is - Ghulzar sahab will be proud ...I loved the conversational mode, though an abrupt start and end like byron's poetry still pleasantly lyrical.
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