सावन का आना भी कोई भुला पाता है ?
हर साल की तरह इस साल भी आया है
सावन कुछ अलग सा है इस साल
थे तो तुम पिछले सावन में भी नहीं
पर इस साल की बात कुछ अजीब है
न जाने क्यों पिछले साल की सीलन
इस साल भी दीवारों पर है
कुछ पॊन्दोन से छलक्ति हुई
भीगा सा एक अफसाना सुना जाती है
सावन कुछ अलग सा है इस साल
देखो तो लगता है कुछ आम सा
पर अधूरा है येह…
इस सावन में मुस्कराहट जो नहीं है
क्यूँ यह बदल वैसे नहीं बरसते ?
क्यूँ यह बूँदें ठंडी नहीं हैं ?
क्यूँ न जाने कलियाँ नहीं मुस्कुराती ?
थे तो तुम पिछले सावन में भी नहीं
पर ग़म तो था तुम्हारा ... कुछ अपना सा
पर न जाने तुम्हरे ग़म को
मिटाना इतना मुश्किल क्यों हैं
सावन भी थक गया आसुओं को छुपाते का
झूठी मूठी मुसकुराहटों बहाना
भूल चूका है सावन भी भीग जाना
सीलन तो आज भी वैसी है
सीलन तो आज भी वैसी है
उन गिलाफों में छिपे आसुओं की
कोई न सुखा पाया न ही छुपा पाया
सावन जो जा के फिर से आ गया
पर ना आये तुम
पहले तुम्हारी याद तो आती थी
पहले तुम्हारी याद तो आती थी
अब बस सावन आता है… तुम्हारी याद नहीं