मौसम फिर रहा है
रातें अब ज़रा धुंदली हो चुकी हैं
ऐसे में धुंदले आईने में खुद को
ढूंढ़ने को जो हाथ फेरा
न नज़र कुछ भी आया
अपनी प्रतिबिम्ब को न देख पाना
खुद ही में एक खोकलपन बना देता है
इधर ढूंढा , उधर ढूंढा न हाथ आया कुछ
खुद के अस्तित्व कि तलाश में
मैं निकल पड़ा भूली गलियों में भटकने
गलियां जो गुज़रे कल कि थी
गलियां जिनकी महक आज भी है ताज़ा
गलियां जिनमे हम हाथों में हाथ लिए घुमते थे
गलियां जिनमे कई बार हमने
साथ अपना नाम कुरेदा था दीवारों पे
फिर भी न मिला मैं खुद को
मुंडेरों पे ढूंढा, चौबारों पे भी देख लिया
ना मेरा नाम कहीं था न ही निशाँ
गली देखि गलियारा देखा
पर हाथ आई सिर्फ ज़रा सी मायूसी
उन यादों कि गलियों में
कहीं किसी चबूतरे पे बैठे याद आया
भूल आया हूँ कहीं पे खुदको
वहीँ जहाँ आखरी बार मुस्कुराया था
तुम्हारे सिरहाने ....